वायरल डॉक्यूमेंट्री में देखें "छप्पनिया अकाल" में घटित लंबे अकाल का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव और उस समय की चिकित्सा व्यवस्था का विश्लेषण
राजस्थान न्यूज डेस्क !!! 'छप्पनिया अकाल" राजस्थान या थार के इतिहास का वो सबसे भयंकर अकाल जो वर्ष 1898 में पड़ा, विक्रम संवत 1956 होने के कारण इसे 'छप्पनिया अकाल" भी कहा जाता है। दुनिया इस अकाल को ‘द ग्रेट इंडियन फ़ैमिन 1899’ के नाम से जानती है. ऐसा माना जाता है कि इस अकाल में राजस्थान के दस लाख लोग भूख के कारण ही दम तोड़ गए।
लोकगीतों व लोकजीवन में आज भी इस अकाल की भीषणता का वर्णन मिलता है. सन 1908 में भारत के इम्पीरियल गज़ेटियर में छपे एक अनुमान के अनुसार, इस अकाल से अकेले ब्रिटिश भारत अर्थात सीधे अंग्रेज़ी हुक़ूमत द्वारा शासित प्रदेशों में 10 लाख लोग भुखमरी और उससे जुड़ी हुई बीमारियों से मौत के मुँह में समा गए। कुछ इतिहासवेत्ता मानते हैं कि, ये आंकड़ा राजस्थान की कुल जनसंख्या का करीब 25 प्रतिशत यानि 40 से 45 लाख तक पहुंच गया था। इसमें उस समय के रजवाड़ों और रियासतों में इस अकाल की वजह से हुई जनहानि की संख्या शामिल नहीं है। तो आईये आज के वीडियो में जाने इतिहास के सबसे दर्दनाक दौर छप्पनिया अकाल की कहानी
राजस्थान में स्थित थार दुनिया का 17वाँ सबसे बड़ा रेगिस्तान और दुनिया का 9वाँ सबसे बड़ा गर्म मरुस्थल है। ये राजस्थान का वो इलाका है जिससे कुदरत को कुछ खास लगाव नहीं है। पुरे रेगिस्तान में जहां ना के बराबर बारिश होती है, वहीँ दूसरी ओर यहां पानी के लिए एक भी नदी नहीं है। इसी कारण से ये पूरा क्षेत्र अपनी पानी की जरूरतों के लिए पूरी तरह से बारिश पर ही निर्भर है। ऐतिहासिक रूप से राजस्थान में हर तीसरे साल अर्धअकाल और हर आठवे साल भीषण अकाल पड़ते आया है, लेकिन छप्पनिया तो जैसे बादलों को नहीं बरसने की कसम खिला कर आया था। छप्पनिया ने राजस्थान और राजस्थान के लोगों दोनों की कमर कुछ इस कदर तोड़ी की यहां के लोग मवेशियों का खाना खाने पर मजबूर हो गए थे।
छप्पनिया अकाल पश्चिमी और मध्य भारत में 1899 की गर्मियों के मानसून की विफलता के साथ शुरू हुआ। जिसने आने वाले साल में 476,000 वर्ग मील क्षेत्र की 6 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या के जीवन को असहनीय कष्टों से भर दिया। शुरुवाती दौर में इस भयंकर अकाल का असर मध्य और उत्तर भारत में देखा गया, जिसमे बॉम्बे प्रेसीडेंसी, अजमेर-मेरवाड़ा के मामूली प्रांत और पंजाब के हिसार जिले शामिल थे। हालाँकि इस अकाल से सबसे ज्यादा राजस्थान की रियासतें प्रभावित हुई थी। इस अकाल से राजस्थान के नागौर, मारवाड़, मेवाड़, काठियावाड़, जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर और जैसलमेर जैसे क्षेत्रों में सबसे अधिक तबाही मची थी। सूखे के चलते राजस्थान में दाने-पानी की भारी कमी आ गई, जिससे रियासतों का अंतर-क्षेत्रीय व्यापार बर्बाद हो गया। जिसके परिणामस्वरूप भूख से मृत्यु दर काफी अधिक बढ़ गई थी।
साल 1899 में उत्तर भारत के कई हिस्सों में औसत वर्षा 45 इंच से घट कर सिर्फ 11 इंच रह गई थी। इस दौरान राजस्थान के अधिकांश भूभागों में साल भर बारिश की एक बूंद तक नहीं गिरी. वर्षा ऋतू की खेती पर निर्भर राजस्थान में बारिश ना होने के चलते किसान अपनी फसल भी नहीं बो सके. जिससे न तो अनाज का एक दाना पैदा हुआ, न ही पशुओं के लिए चारा उपलब्ध हो पाया. जो इलाक़े पीने के पानी के लिए वर्षा जल के संचय पर निर्भर रहते थे, वहां पीने के पानी की घोर कमी के चलते लोग पलायन करने लगे. भुखमरी का दौर इस स्ठर तक पहुंच गया कि लोगों के घरों से अनाज और पानी की चोरियां होने लगी। आप इसकी तबाही का दर्द इस बात से समझ सकते हैं कि उस दौर में अनाज के बदले लोग अपनी पत्नी-बच्चे तक को बेचने के लिए मजबूर हो गए । यह दिल दहलाने वाला दर्दनाक मंजर राजस्थान के कोने-कोने में फैला था।
अकाल में जहां एक ओर पीने का पानी नहीं होने के कारण डिहाईड्रेशन के चलते लोगों की मौत हो रही थी, वहीँ दूसरी ओर मरुस्थल के 50-52 डिग्री सेल्सियस के तापमान में भूख व प्यास से पलायन करते लोग व पशु रस्ते में दम तोड़ रहे थे। अकाल की तबाही से तिल-तिल कर मरते लोग घास की रोटी, सांप-नेवलों का शिकार और पेड़ों की सूखी छाल पीसकर खाने को मजबूर हो गए। भुखमरी का आलम कुछ ऐसा था कि कुछ लोग तो भूख से नरभक्षी तक बन गए थे।
छप्पनिया अकाल का कहर इतना भयंकर था कि, भूख और पानी की कमी से लोगों के शरीर हर एक हड्डी को साफ़-साफ़ देखा जा सकता था। लोग इस कदर कमजोर हो गए थे कि लोगों को चलने-फिरने यहां तक की खड़े होने के लिए भी सहारा चाहिए होता था, इसके लिए लगभग हर घर में खूंटे गाड़ दिए गए थे। राजस्थान में खूंटे गाड़ने का मतलब होता है, एक लम्बे डंडे को जमीन में गाड़ देना, जिसका सहारा लेकर लोग खड़े हो सकें, चल फिर सकें ओर अपना दैनिक काम कर सकें। जब अनाज की कमी आई तो लोग एक दिन छोड़ कर एक दिन खाना खाने को मजबूर हुए, लेकिन ये तबाही यहीं नहीं रुकी। हालात इस कदर खराब हो गए की लोग भूखमरी में पहले काकड़िया-मतीरे के बीज खाने को मजबूर हुए, जब वो भी खत्म हुए तो पेड़ों की छाल खाई, जब सूखे से वो भी खत्म हुई तो लोग बेर, वनस्पति ओर झाड़-झंखाड़ खाने लगे। एक समय तो ऐसा आया की ये सब भी लोगों के आस-पास के मीलों के इलाके में खत्म हो गए। इसके बाद लोग बेर की बची हुई गुठलियों का चूर्ण बना, उसे पानी के साथ खाने को मजबूर हो गए। जब लोगों के लिए हर रास्ता बंद हो गया तो वो सुखी हुई घास को उबाल कर खाने लगे। अकाल की कालिमा लोगों पर इस कदर गहराई की लोगों का खून धीरे-धीरे खाने और पानी की कमी से सुख गया।
इस अकाल से आम जनता ही नहीं राजपुताना के राजा महाराजा भी जूझ रहे थे. राजपूताने के कई राजाओं ने जनता को इस भयंकर त्रासदी से बचाने के लिए अकाल राहत के कई कार्य किये, जिसमे मुफ़्त खाने का प्रबन्ध सबसे महत्वपूर्ण था। इसके साथ ही रियासतों ने प्रजा के लिए जगह जगह आश्रय खोले ताकि भूखे लोग वहां पर खाना खाकर अपनी जान बचा सके। हालाँकि, यातायात के सीमित साधन व संचार माध्यमों की कमी के चलते लोगों तक पूरी तरह से मदद नहीं पहुंच सकी. इस व्यवस्था के चलते राजपूताने के कई शासकों के खजाने खाली हो गए और वो भारी कर्ज में डूब गए। उस दौरान ब्रिटिश सरकार के अधीन आने वाले प्रदेशों में अकाल से प्रभावित लोगों को राहत देने के लिए राहत शिविर खोले गए थे लेकिन वहां भी लोगों को सीमित राहत ही मिली, जो नहीं के बराबर थी।
आखिरकार एक दिन प्रकृति को भी मरुधरा के लोगों के होंसले के आगे झुकना पड़ा, और एक लम्बें आरसे के बाद जेठ महीने में मानसून ने दस्तक दी। जैसे ही मरुधरा में बादल गरजने लगे, कुछ लोगों की आँखें एक लम्बी त्रासदी की खत्म होने की खुशी से भर आई तो कुछ लोगों की आँखों में आंसू इस दौरान हुए या उनके किये कर्मों को याद कर आये। हमारे पूर्वजों ने साल दर साल इन अकालों की विभीषिका को बेमिसाल हौसले व बुद्धिमत्ता से झेला और संकटों के दौर से खुद और परिजनों की ज़िंदगी की नैया को बड़े जतन से संभाल कर रखा। हमारे बुजुर्गों ने कितना दर्द झेला ये आज एसी कमरों में बैठकर ये वीडियो देखने वालों के लिए सोचना भी नामुनकिन है। लेकिन इस अकाल ने हमारे पूर्वजों की सामाजिक और आर्थिक दशा को गम्भीर क्षति पहुंचाई। जिससे समाज में जातिवाद को काफी बढ़ावा मिला। इस अकाल के दौरान कई शिल्पकार व बुनकर जातियां भूखमरी के कारण अपना शिल्प छोड़ कर पूरी तरह कर्ज में डूब गई और आगे चलकर बंधूवा मजदूरों में परिवर्तित हो गई। इन जंतियों में बलाई बुनकर जाति भी एक थी, जिनकी सामाजिक स्थिति में भी काफी भयंकर गिरावट आई। राजस्थान से हजारों की संख्या में लोगों ने मालवा व अन्य स्थानों की ओर पलायन भी किया।
इस भयंकर अकाल से राजस्थान के राजा-महाराजाओं, ब्रिटिश सरकार और आम लोगों ने सीख लेते हुए कई ऐसे इंतजाम करवाए जिससे भविष्य में उन्हें और उनकी आने वाली पुश्तों को इस तरह का दर्द ना झेलना पड़े। राजस्थान के लोगों में इस अकाल से उभरने के बाद मानो दुनिया के किसी भी अकाल या प्राकृतिक त्रासदी का सामना करने का साहस आ गया था। इस भयंकर अकाल के चलते राजस्थान के कई लोग अपने घर-परिवार छोड़ भारत के अलग-अलग हिस्सों में बस गए। इन लोगों ने अपनी मेहनत और लगन का ऐसा जोहर दिखाया की सारे भारत में मारवाड़ियों के नाम से इनकी तूती बोलने लगी। भविष्य में अकाल का दुःख ना झेलना पड़े इसलिए कई नहरों, जलाशयों ओर इमारतों का निर्माण कराया गया। और भविष्य के लिए योजना बनायीं गयी, जिनमे खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देना, अमेरिका से लाल गेहूं मंगवाना, परमिट के ज़रिए लाल जंवार, लाल गेंहू, घाट आदि बाटना, हरित क्रांति की शुरुआत, भारतीय कृषि प्रणाली और बुवाई हेतु प्रयुक्त होने वाले बीजों की गुणवत्ता में परिवर्तन करना, अनाज के भंडारण के गोदामों में सरप्लस रखने के साथ सड़क और रेल परिवहन की सुविधाओं में विस्तार शामिल था।
तो ये थी छप्पनिया अकाल की कहानी, वीडियो देखने के लिए धन्यवाद, अगर आपको यह वीडियो पसंद आया तो प्लीज कमेंट कर अपनी राय दें, चैनल को सब्सक्राइब करें, वीडियो को लाइक करें, और अपने फ्रेंड्स और फेमिली के साथ इसे जरूर शेयर करें।