Aapka Rajasthan

यादों में अदम : 'समय से मुठभेड़' करने वाला शायर, जिसने फाइलों में 'गांव का मौसम गुलाबी' देखा

नई दिल्ली, 17 दिसंबर (आईएएनएस)। 'काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में।' जब यह शेर पहली बार हिंदी गजल की महफिलों से निकलकर आम आदमी की जबान पर चढ़ा होगा, तब किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि इस तीखे व्यंग्य के पीछे का चेहरा कितना विनम्र और जमीन से जुड़ा है। यह आवाज न किसी बुर्जुआ स्टूडियो से निकली थी, न किसी अकादमिक गलियारे से। यह गर्जना थी, उस 'धरतीपुत्र कवि' की, जिसने अपनी कलम को हाकिमों की तकरार के लिए उठाया और अपनी खेती को कभी नहीं छोड़ा। वे अदम गोंडवी थे।
 
यादों में अदम : 'समय से मुठभेड़' करने वाला शायर, जिसने फाइलों में 'गांव का मौसम गुलाबी' देखा

नई दिल्ली, 17 दिसंबर (आईएएनएस)। 'काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में।' जब यह शेर पहली बार हिंदी गजल की महफिलों से निकलकर आम आदमी की जबान पर चढ़ा होगा, तब किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि इस तीखे व्यंग्य के पीछे का चेहरा कितना विनम्र और जमीन से जुड़ा है। यह आवाज न किसी बुर्जुआ स्टूडियो से निकली थी, न किसी अकादमिक गलियारे से। यह गर्जना थी, उस 'धरतीपुत्र कवि' की, जिसने अपनी कलम को हाकिमों की तकरार के लिए उठाया और अपनी खेती को कभी नहीं छोड़ा। वे अदम गोंडवी थे।

22 अक्टूबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के अट्टा परसपुर गांव में रामनाथ सिंह का जन्म हुआ। उनका जीवन-वृत्त ही उनकी लेखनी का आधार था। वह न केवल कवि थे, बल्कि किसान भी थे। उन्हें 'जनकवि' या 'धरतीपुत्र कवि' की संज्ञा यूं ही नहीं मिली। कविता लिखते-लिखते वे खेतों में हल भी चलाते थे। इसी कारण उनके काव्य में शोषण, गरीबी और ग्रामीण जीवन की दुर्दशा का चित्रण इतना सच्चा और जीवंत है।

गोंडा की सामंती पृष्ठभूमि ने उन्हें सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करने को प्रेरित किया। उन्होंने अपनी आंखों से देखा था कि आजादी के बाद भी 'रामराज' का सपना क्यों चकनाचूर हो गया। इसी मोहभंग, इसी विडंबना को उन्होंने अपनी रचनाओं ('धरती की सतह पर' और 'समय से मुठभेड़') के माध्यम से कागज पर उतारा।

सत्तर और अस्सी के दशक में जब भारतीय लोकतंत्र अपने आदर्शों से भटक रहा था, तब हिंदी कविता को एक नई प्रतिरोध की भाषा की जरूरत थी। साहित्यिक पटल पर दुष्यंत कुमार ने जो मशाल जलाई थी, अदम गोंडवी ने उसे और अधिक आक्रामकता दी। जहां दुष्यंत का प्रतिरोध दार्शनिक था, वहीं अदम ने उसमें तीखे व्यंग्य का समावेश कर उसे 'दर्प' (साहस और अभिमान) प्रदान किया।

यही कारण है कि उनकी शायरी सीधे हुक्मरानों से ऊंची आवाज में तकरार करती थी। 1998 में उन्हें प्रतिष्ठित दुष्यंत कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अदम गोंडवी की गजलें सीधे सरकारी फाइलों के झूठ पर चोट करती थीं। उन्हें पता था कि गांव की हकीकत क्या है और सरकारी कागजों में क्या लिखा जाता है।

'तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।' यह एक ऐसा 'प्रतिआख्यान' था जो केवल शिकायत नहीं करता था, बल्कि उस पूरी शक्ति संरचना को चुनौती देता था जो डेटा के माध्यम से लोगों के अनुभवों को दरकिनार करती थी। उनकी आलोचना यहीं नहीं रुकी। उन्होंने सीधे राष्ट्र की स्वतंत्रता पर ही सवाल खड़ा कर दिया जब उन्होंने देखा कि बहुमत आबादी असंतुष्ट है।

"सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिए देश क्या आजाद है।" भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी को उन्होंने औपनिवेशिक शासन से भी बड़ा खतरा बताया, जिसकी मारक क्षमता देखिए: "जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे, कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे।" यह भाषा तिलमिला देने वाली थी, लेकिन यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी।

भूख अदम गोंडवी के काव्य का सबसे केंद्रीय और मार्मिक विषय था। वह मानते थे कि भूख केवल पेट भरने का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह वह शक्ति है जो इंसान को किसी भी मोड़ पर ला सकती है। 'बेचता यूं ही नहीं है आदमी ईमान को, भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।'

दलित चेतना और श्रम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अद्वितीय थी। उन्होंने प्रेमचंद के 'घीसू' का संदर्भ लाकर श्रम की महत्ता को स्थापित किया। 'न महलों की बुलंदी से, न लफ्जों के नगीने से, तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।'

शोषित वर्ग के जीवन के ताप को महसूस कराने के लिए उन्होंने पाठक को चुनौती दी। 'आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।' यह केवल एक भौतिक गली का नहीं, बल्कि सामाजिक अस्मिता के उस अनदेखे यथार्थ का प्रवेश द्वार था, जिसे उनकी कविता ने केंद्र में ला दिया।

अदम गोंडवी की भाषा, जिसे आलोचकों ने 'प्रेमचंदी हिंदुस्तानी' कहा, ठेठ ग्रामीण मुहावरों से सजी थी, जिसने उर्दू गजल के शास्त्रीय सौंदर्य को कायम रखते हुए भी उसे क्लिष्ट नहीं होने दिया। उनकी व्यंग्यात्मकता में उनकी अवधी पृष्ठभूमि की 'फक्कड़ मस्ती' थी, जिससे वे सीधे कबीर की परंपरा के वाहक बन गए।

18 दिसंबर 2011 को जब लखनऊ के संजय गांधी स्नातकोत्तर संस्थान में पेट के रोगों के कारण इस क्रांतिकारी आवाज का अवसान हुआ, तो साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई। विडंबना देखिए, जिस वर्ष देश भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के चरम पर था, उसी वर्ष लोकतंत्र के विरोधाभासों पर सबसे मारक प्रश्न उठाने वाला यह कवि हमेशा के लिए मौन हो गया।

--आईएएनएस

वीकेयू/एबीएम