आईआईटी दिल्ली और एम्स के वैज्ञानिकों ने मिलकर बनाई 'स्मार्ट पिल', आखिर क्यों है खास?
नई दिल्ली, 16 दिसंबर (आईएएनएस)। हर बीमारी का जुड़ाव हमारे पाचन तंत्र से होता है। खाना पचाने से लेकर मूड नियंत्रित करने में इसका बड़ा योगदान होता है। इस तंत्र में अगर कोई गड़बड़ी आ जाए तो टेस्ट भी जटिल ही होता है। एम्स और आईआईटी दिल्ली के शोधार्थियों ने आम लोगों की इसी मुश्किल को हल करने के लिए एक स्मार्ट पिल यानी माइक्रो डिवाइस विकसित की है। ये ऐसी डिवाइस है जिसे निगला जा सकता है।
दावा है कि ये छोटी आंत से सीधे बैक्टीरिया सैंपल इकट्ठा कर सकता है। इससे इंसान के गट माइक्रोबायोम के बारे में नई जानकारी मिलेगी। इसका एनिमल मॉडल पर परीक्षण सफल रहा है।
हालांकि सभी बैक्टीरिया हानिकारक नहीं होते, लेकिन इंसान के शरीर की लगभग आधी कोशिकाएं माइक्रोबियल होती हैं। ये जीव हमारी आंत में रहते हैं और हमें खाना पचाने, मूड को रेगुलेट करने और इम्यूनिटी बनाने में मदद करते हैं।
फिर भी, इनका अध्ययन करना मुश्किल बना हुआ है। मौजूदा तरीके इनवेसिव हैं, जैसे एंडोस्कोपी या इलियोस्टॉमी, या अप्रत्यक्ष हैं, जो मल के नमूनों पर निर्भर करते हैं जो पाचन तंत्र के ऊपरी हिस्सों की स्थितियों को सही मायने में नहीं दिखाते हैं।
यह उपकरण, एक छोटी गोली है जो निगले जाने के बाद पेट में बंद रहती है। यह सिर्फ आंत में खुलती है ताकि बैक्टीरिया इकट्ठा कर सके, फिर आंत से गुजरते समय सैंपल को सुरक्षित रखने के लिए खुद को फिर से सील कर लेती है, यह बात एम्स, दिल्ली के सहयोग से किए गए और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा वित्तपोषित अध्ययन में सामने आई।
आईआईटी दिल्ली के सीबीएमई में मेडिकल माइक्रोडिवाइसेस एंड मेडिसिन लेबोरेटरी (3एमलैब) के प्रमुख अन्वेषक प्रो. सर्वेश कुमार श्रीवास्तव ने बताया, "यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि हमारे शरीर में जीवित रोगाणुओं का एक छिपा हुआ ब्रह्मांड है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक सच्चाई है -- हम इसे ह्यूमन माइक्रोबायोम कहते हैं। जैसे हम बाहरी अंतरिक्ष का पता लगाने के लिए रोवर भेजते हैं, वैसे ही हमें मानव शरीर के अंदरूनी हिस्से का पता लगाने के लिए छोटे उपकरणों की जरूरत है।"
श्रीवास्तव ने आगे कहा, "प्रोटोटाइप माइक्रोडिवाइस, एक बार निगलने के बाद, ऊपरी जीआई ट्रैक्ट के खास हिस्सों से रोगाणुओं को अपने आप इकट्ठा कर सकता है, जिससे रहने वाले रोगाणुओं की प्रजाति-स्तर पर पहचान की जा सकती है, साथ ही अन्य बायोमार्कर भी।"
यह तकनीक गट हेल्थ रिसर्च और बीमारियों के जल्दी निदान में गेम-चेंजर साबित हो सकती है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, इस डिवाइस में एक एंटरिक-कोटेड जिलेटिन कैप होती है जो इसे गैस्ट्रिक पीएच (1-1.5) में सुरक्षित रखती है और आंतों के पीएच (3-5) पर घुल जाती है। इससे आंत का फ्लुइड अंदर आता है और बैक्टीरिया सैंपल कलेक्ट हो जाता है। हाइड्रोजेल की मदद से डिवाइस दोबारा सील हो जाती है, जिससे आगे कंटैमिनेशन का खतरा नहीं रहता।
एम्स नई दिल्ली के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी और ह्यूमन न्यूट्रिशन यूनिट विभाग के सह-वरिष्ठ लेखक डॉ. समग्र अग्रवाल ने कहा, "छोटी आंत सेहत के लिए बहुत अहम है। वहां मौजूद रोगाणुओं और रसायनों को समझना बीमारी का जल्दी पता लगाने, पुरानी बीमारियों की निगरानी और अधिक लक्षित उपचार विकसित करने की कुंजी हो सकती है।"
शोधकर्ताओं ने बताया कि उनका लक्ष्य जरूरी मंज़ूरी के बाद क्लिनिक में भारतीय मरीजों की मदद के लिए इस प्लेटफॉर्म तकनीक को आगे बढ़ाना है।
--आईएएनएस
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