मेरा आदर्श गांव आभानेरी

- यह जयपुर से 95 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
- यह छोटा-सा ग्राम किसी समय राजा भोज की राजधानी रहा था।
- यह स्थान लगभग तीन हज़ार वर्ष तक पुराना हो सकता है।
- जनसंख्या जनगणना 2011 के अनुसार आभानेरी गाँव की जनसंख्या 2104 है, जिसमें 1077 पुरुष हैं जबकि 1027 महिलाएँ हैं।
मेरे गावं की कहानी डेस्क, आज इस लेख के माध्यम से मै आपको अपने गांव की कहानी बताने जा रहा हूँ। मेरे गांव का नाम आभानेरी है, आभानेरी राजस्थान के दौसा जिले की बांदीकुई तहसील से 7 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित एक गाँव है। यह गाँव अपनी ऐतिहासिकता के कारण विश्व विख्यात है। चाँद बावड़ी तथा हर्षद माता मंदिर इसी गाँव में स्थित हैं। यहां प्रसिद्ध वेधशाला निर्माणकर्ता पंडित कल्याणदत्तशर्मा का जन्म हुआ। आभानेरी राजस्थान के दौसा ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक ग्राम है। यह जयपुर से 95 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह इतिहास की आभा से अभीभूत कर देने वाला स्थान है। यह छोटा-सा ग्राम किसी समय राजा भोज की राजधानी रहा था। आभानेरी से प्राप्त पुरातत्त्व अवशेषों को देखकर यह कहा जा सकता है कि यह स्थान लगभग तीन हज़ार वर्ष तक पुराना हो सकता है। यहाँ से प्राप्त कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण पुरावशेष 'अल्बर्ट हॉल म्यूजियम', जयपुर की शोभा बढ़ा रहे हैं।
पुरातत्त्व विभाग द्वारा यहां से प्राप्त पुरावशेषों को देखकर यह कहा जा सकता है कि आभानेरी गांव तीन हज़ार साल तक पुराना हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि यहां गुर्जर प्रतिहार राजा सम्राट मिहिर भोज ने शासन किया था। उन्हीं को राजा चांद के नाम से भी जाना जाता है। आभानेरी का वास्तविक नाम 'आभानगरी' था। कालान्तर में अपभ्रंश के कारण यह आभानेरी कहलाने लगा। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भारत की भूमि का कोई मुकाबला नहीं है। यहाँ पग-पग पर कला के रंग समय को भी यह इजाजत नहीं देते कि वे उसके अस्तित्व पर गर्त भी डाल सकें। भारत की ऐसी ही वैभवशाली और पर्याप्त समृद्ध स्थापत्य कला के नमूने कहीं-कहीं इतिहास के झरोखे से झांकते मालूम होते हैं। ऐसे ही कुछ नमूने राजस्थान के दौसा ज़िले में स्थित ऐतिहासिक स्थल 'आभानेरी' में देखने को मिलते हैं।
प्राचीन चांद बावड़ी
आभानेरी की चांद बावड़ी की गिनती भारत में सबसे पुराने और सबसे बड़े सीढ़ियों वाले कुंओं में होती है। हालांकि ये बावड़ी कब और किसने बनाई थी, इसका कोई दस्तावेज़ नहीं है, लेकिन इसकी शैली और वास्तुशिल्प विशेषताओं के आधार पर माना जाता है, कि इसका निर्माण 8वीं और 9वीं सदी में हुआ होगा। कहा जाता है, कि इसे निकुंभ शासक राजा चंदा या राजा चंद्र ने बनवाया था जिनके नाम पर इस बावड़ी का नाम रखा गया। “स्टेप्स टू वॉटर- द एन्शियंट स्टेपवेल्स ऑफ़ इंडिया” की लेखिका मोर्ना लिविंगस्टन के अनुसार सीढ़ियों वाला ये कुआँ सबसे बड़ा कुआं था। यह बावड़ी वास्तुकला के मामले में एक अजूबा है और बावड़ी के परिसर में खड़े होकर ही इसके महत्व और आकर्षण को समझा जा सकता है। बावड़ी की गहराई 19.5 मीटर है और ये देश की सबसे गहरी बावड़ी है। यहां 13 मंज़िलें हैं और चौकोर चबूतरे के रूप में बनी बावड़ी के तीन तरफ़ सीढ़ियां हैं और चौथी तरफ़ एक महल और एक मंडप है। कुआँ मध्य में है। बावड़ी में क़रीब तीन हज़ार पांच सौ(3,500) सीढ़ियां हैं जो ज्यामितीय पैटर्न में बहुत सुंदर तरीक़े से बनाईं गईं हैं। अंदर की तरफ़ सिर्फ़ 18 इंच के विस्तार की मदद से आठ फ़ुट नीचे उतरने के लिए 13 सीढ़ियों बनाई गई हैं ।
महल-मंडप को अब ग्रीष्म-महल कहा जाता है। उत्तरी दिशा में स्थित ये महल-मंडप स्तंभों पर आधारित है। निचली मंज़िलों में आगे की तरफ़ निकले हुए दो मंदिर हैं ,जिनमें महिषासुर मर्दिनी और गणेश की दो सुंदर प्रतिमाएं हैं। महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति, जिसमें देवी को असुर महिषासुर का वध करते दिखाया गया है, अपनी सुंदर कारीगरी के लिए जानी जाती है और विश्वास किया जाता है, कि इस रुप में देवी के पहले उदाहरणों में से एक है।
मोर्ना लिविंगस्टन अपनी किताब में लिखती हैं, कि इस बावड़ी में एकल सेटिंग में दो शानदार जल-घर हैं। खुला हुआ कुआँ , मंदिर और सीढ़ियां जहां 8वीं सदी की हैं, वहीं महल वाली ऊपरी मंज़िलों का निर्माण बाद में 18वीं सदी में मुग़ल काल में हुआ था। महल किसने बनवाया था, इसका भी कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। स्थानीय परंपराओं के अनुसार जयपुर के महाराजा यहां गर्मियों में आया करते थे, क्योंकि महल ठंडा रहता था और इसीलिए इसे ग्रीष्म-महल (समर पैलेस) कहा जाता है। यह महल तीन मंज़िला है।
चांद बावड़ी मूलत: पानी जमा करने के लिए बनाई गई थी। जिस तरह से सीढ़ियां बनी हुई हैं, उन्हें देखकर लगता है, कि उन्हें बहुत ही गणितीय बारीकी से बनाया गया होगा। एक तरफ़ जहां बावड़ी बनवाने का मक़सद जल-आपूर्ति और जल-प्रबंधन था, वहीं इसका धार्मिक महत्व भी था। कहा जाता है, कि बावड़ी के पास मंदिर में आने वाले श्रद्धालु बावड़ी में अपने हाथ-पैर धोया करते थे।
पवित्र हर्षद माता मंदिर
बावड़ी के पास परिसर के बाहर है हर्षद माता मंदिर। हालंकि आज ये जर्जर अवस्था में है, लेकिन फिर भी लोग यहां आते हैं। कहा जाता है, कि बावड़ी की तरह ये मंदिर भी 8वीं-9वीं सदी का है, लेकिन विश्वास किया जाता है, कि इसका निर्माण बावड़ी के बाद हुआ होगा। पिछले कई वर्षों में मंदिर काफ़ी क्षतिग्रस्त हो चुका है। मंदिर का जो कुछ भी हिस्सा आज मौजूद है, उसे दोबारा बनाया गया था। ये मंदिर हर्ष की देवी हर्षा माता यानी ख़ुशी का देवी को समर्पित है। लेकिन कई विद्वानों की राय है, कि शक्ति मंदिर के पहले ये वैष्णव मंदिर था। मंदिर दो पौड़ियों वाले चबूतरों पर बना हुआ है। गर्भगृह की शैली पंचरथ है, जिसके ऊपर खंबो पर बना मंडप और ड्योढ़ी है। गर्भगृह के पास एक औषधालय है।
मंदिर की ख़ास बात उसकी मूर्तियां हैं। ये मंदिर के ऊपरी चबूतरे के स्तंभ पर बनी हुई हैं। ये मूर्तियां नृत्य, संगीत और प्रकृति के अलावा धार्मिक तथा सामाजिक विषयों को दर्शाती हैं। इस क्षेत्र में ये मूर्तियां गुप्त काल के बाद के समय की कला के बेहतरीन उदाहरण हैं। यहां विष्णु, उनके वाहन और शिव की भी मूर्तियां हैं। शिव को अर्धनारीश्वर के रुप में दिखाया गया है। इसी तरह कृष्ण की भी मूर्ति है, जिन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा रखा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मंदिर के आसपास बिखरी मूर्तियों को सुरक्षा कारणों से बावड़ी-परिसर के बरामदों में रखवा दिया है। मंदिर की मूर्तियां, राजस्थान में अलवर और जयपुर के कुछ संग्रहालयों में रखी हुई हैं।
लेखक: Dinesh Kumar Raiger