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वीडियो में देखे छप्पनिया अकाल का भयानक मंजर, जब भूख-प्यास से तड़पते इंसान और पशु सब कर बैठे त्राहिमाम

वीडियो में देखे छप्पनिया अकाल का भयानक मंजर, जब भूख-प्यास से तड़पते इंसान और पशु सब कर बैठे त्राहिमाम
 
वीडियो में देखे छप्पनिया अकाल का भयानक मंजर, जब भूख-प्यास से तड़पते इंसान और पशु सब कर बैठे त्राहिमाम

भारतीय इतिहास में दर्ज सबसे भयावह प्राकृतिक आपदाओं में से एक था छप्पनिया अकाल, जो वर्ष सन् 1956 (संवत् 2013) में राजस्थान और गुजरात के कई इलाकों को पूरी तरह झकझोर कर रख गया। "छप्पनिया" नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह अकाल संवत 2013 में पड़ा था, जिसे आमजन की भाषा में "छप्पनिया साल" कहा गया। यह सिर्फ सूखा नहीं था, यह मानवता की सबसे कड़ी परीक्षा थी — जहाँ भूख, प्यास, बीमारी और पलायन ने पूरे सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर रख दिया।

जब आसमान ने छोड़ा साथ

राजस्थान के शेखावाटी, मारवाड़, बीकानेर, नागौर, बाड़मेर और जैसलमेर जैसे इलाकों में सामान्यतः मानसून कम वर्षा करता है, लेकिन उस साल बारिश नाममात्र ही हुई। जुलाई से सितंबर तक जब आकाश से पानी की एक बूंद भी नहीं गिरी, तब खेत सूख गए, कुएं रीते हो गए, और जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति – जल – दुर्लभ हो गया। लोगों की आंखें बादलों की ओर टिकी रह गईं, लेकिन न समय ने साथ दिया, न प्रकृति ने।

खेत हुए बंजर, मवेशी मरने लगे

ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था उस दौर में पूरी तरह कृषि और पशुपालन पर आधारित थी। छप्पनिया अकाल में सबसे पहली मार इन्हीं पर पड़ी। खेतों में फसलें उगने की उम्मीद ही खत्म हो चुकी थी। जो पशु परिवार के सदस्य जैसे माने जाते थे, वे भूख और प्यास से दम तोड़ने लगे। ना चारा था, ना पानी। पशुओं की हड्डियां गांवों के बाहर पड़ी दिखती थीं, जो मानो उस त्रासदी की मूक गवाही दे रही थीं।

इंसानियत की भी हुई परीक्षा

छप्पनिया अकाल में हालात ऐसे हो गए थे कि इंसानों को अपनी और अपने परिजनों की भूख मिटाने के लिए बूट की तलहटी, पेड़ की छाल, जंगल की झाड़ियों और यहां तक कि मिट्टी और जानवरों की खाल तक खाने की नौबत आ गई थी। कई जगहों पर भुखमरी से सामूहिक मौतें हुईं। महिलाओं ने अपने गहने बेच दिए, बच्चों को शहरों में छोड़ दिया गया ताकि वे जीवित रह सकें।

पलायन का दर्द

इस अकाल ने लाखों लोगों को अपने पुश्तैनी घरों से पलायन करने पर मजबूर कर दिया। लोग ट्रेनों और बैल गाड़ियों से दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद जैसे शहरों की ओर निकल पड़े। जो जहां पहुंच सका, वहां मजदूरी करके पेट पालने की कोशिश करने लगा। गाँवों की बसावट टूटने लगी, और शहरों में भीख मांगते लोगों की संख्या असहनीय हो गई।

सरकारी प्रयास और सीमाएं

उस दौर में सरकार के पास सीमित संसाधन थे। राहत कार्य शुरू किए गए, जिसमें अस्थायी राशन वितरण, पानी के टैंकर, और राहत कैंप लगाए गए। कुछ जगहों पर खाद्य वितरण केंद्र भी खोले गए, लेकिन जनसंख्या के मुकाबले ये प्रयास नाकाफी साबित हुए। राजाओं और जमींदारों द्वारा निजी स्तर पर भी मदद की गई, लेकिन हालात ऐसे थे कि कोई उपाय संपूर्ण राहत नहीं दे सका।

लोक संस्कृति में दर्द की दस्तक

छप्पनिया अकाल ने राजस्थान की लोकसंस्कृति और साहित्य में भी अमिट छाप छोड़ी। लोकगीतों, कविताओं और कथाओं में उस अकाल का दर्द आज भी झलकता है। बुजुर्ग आज भी ‘छप्पनिये’ का नाम लेते हुए कांप जाते हैं और कहते हैं – “ऐसो ग़दर अकाल फिर कोनी आयो।”

मरुस्थल में बदली जिंदगी की परिभाषा

छप्पनिया अकाल ने मरुस्थल में रह रहे लोगों को सिखा दिया कि पानी केवल जीवन नहीं, बल्कि अस्तित्व है। इसने सिखाया कि सहनशीलता क्या होती है, परिवार और समुदाय की एकता कैसे संकट में मददगार बनती है। अकाल ने केवल भूख नहीं दी, उसने संघर्ष की संस्कृति को जन्म दिया।