थार मरुस्थल की उत्पत्ति की रहस्यमयी कहानी, वीडियो में जानिए कैसे एक हरा-भरा इलाका बना भारत का सबसे बड़ा रेगिस्तान?
भारत का थार मरुस्थल अपनी विशालता, रहस्यमयता और प्राकृतिक विविधता के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। यह मरुस्थल न केवल राजस्थान राज्य का एक बड़ा हिस्सा है, बल्कि भारत-पाकिस्तान सीमा के कुछ हिस्सों तक भी फैला हुआ है। पर क्या आपने कभी सोचा है कि यह विशाल रेगिस्तान आखिर बना कैसे? थार का बनना किसी एक कारण से नहीं, बल्कि हजारों वर्षों के प्राकृतिक, भौगोलिक और जलवायु परिवर्तनों का परिणाम है – और यही इसकी कहानी को “अद्भुत” बनाता है।
भूगर्भीय समय से शुरू होती है थार की कहानी
थार मरुस्थल की उत्पत्ति की जड़ें भूगर्भीय इतिहास में गहराई तक फैली हुई हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, थार क्षेत्र कभी घना वन हुआ करता था, जहाँ नदियाँ बहती थीं और हरियाली फैली हुई थी। यह क्षेत्र सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों का घर था। लेकिन समय के साथ टेक्टोनिक प्लेट्स की गतिविधियों, विशेषकर भारतीय प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने के कारण, यहाँ बड़े पैमाने पर भौगोलिक बदलाव हुए।इन टेक्टोनिक हलचलों का परिणाम यह हुआ कि कई नदियों का मार्ग बदल गया और कुछ पूरी तरह सूख गईं। खासकर सरस्वती नदी, जो कभी इस क्षेत्र को सींचती थी, कालांतर में सूख गई और उसका जलस्त्रोत समाप्त हो गया। जैसे-जैसे नदियाँ गायब होती गईं, जमीन शुष्क होती गई और वनस्पति खत्म होने लगी। धीरे-धीरे यह क्षेत्र सूखे, गर्म और हवाओं से ढका एक विशाल मरुस्थल में बदल गया।
मानसून की कमजोर पकड़ भी एक बड़ा कारण
थार मरुस्थल के निर्माण में जलवायु परिवर्तन और विशेषकर कमजोर मानसून की भी बड़ी भूमिका रही। इस क्षेत्र में दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा बहुत सीमित मात्रा में होती है। आज भी थार क्षेत्र में औसतन साल भर में 100 से 300 मिलीमीटर तक ही बारिश होती है, जो कृषि या प्राकृतिक जल स्रोतों के लिए पर्याप्त नहीं मानी जाती।लगातार कम वर्षा और उच्च तापमान ने इस क्षेत्र को और अधिक शुष्क बना दिया। इसके अलावा, बालू की सतहों पर तेज हवाएँ मिट्टी की ऊपरी परत को उड़ाकर ले जाती हैं, जिससे उपजाऊ मिट्टी खत्म होती गई और बालू के टीले बनते गए।
मानवीय हस्तक्षेप और सभ्यताओं का योगदान
हालाँकि थार को मरुस्थल बनाने में प्रकृति की भूमिका प्रमुख रही, लेकिन मानव हस्तक्षेप ने भी इसकी गति को प्रभावित किया। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसी सिंधु घाटी सभ्यता के कई केंद्र इसी क्षेत्र के निकट बसे थे। उस समय भी यह इलाका अपेक्षाकृत हराभरा और जलप्रद था।लेकिन जैसे-जैसे सभ्यताएं बढ़ती गईं, वनों की अंधाधुंध कटाई, खेती का अत्यधिक विस्तार और जल स्रोतों के अधिक दोहन से पर्यावरण असंतुलन बढ़ा। जब प्रकृति और मानव का संतुलन बिगड़ता है, तो उसका असर भूगोल पर जरूर पड़ता है। यही हुआ थार के साथ – जहाँ धीरे-धीरे हरियाली कम होती गई और रेत ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी।
थार मरुस्थल: सिर्फ रेत नहीं, जीवन भी है
थार मरुस्थल को केवल रेत का मैदान मानना एक बहुत बड़ी भूल होगी। यह क्षेत्र जैव विविधता, लोक संस्कृति, पशुपालन और ऐतिहासिक धरोहरों से भरपूर है। यहाँ की जीवनशैली कठिन जरूर है, लेकिन अत्यंत रंगीन भी है। ऊँट, काला हिरण, लोमड़ी, गिद्ध और सैंड ग्राउज़ जैसे जीव यहाँ की जलवायु में ढल चुके हैं।राजस्थान के लोक गीत, गहने, पोशाकें और खानपान में भी थार की जीवनशैली की झलक मिलती है। जैसलमेर, बीकानेर और बाड़मेर जैसे शहर इस मरुस्थल की गोद में बसे हैं और इनकी स्थापत्य कला पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है।
भविष्य और पर्यावरणीय चेतावनी
आज थार मरुस्थल जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकटों का जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। रेगिस्तान का दायरा अब धीरे-धीरे बढ़ रहा है, जिसे “डेज़र्टिफिकेशन” कहा जाता है। यदि समय रहते उपाय नहीं किए गए तो यह मरुस्थलीकरण हरियाली वाले क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सकता है।सरकार और वैज्ञानिक इस पर नियंत्रण पाने के लिए वृक्षारोपण, जल संरक्षण, सूखा प्रतिरोधी खेती जैसी योजनाओं पर काम कर रहे हैं। इंदिरा गांधी नहर परियोजना ने कुछ क्षेत्रों में हरियाली लौटाई है, लेकिन यह चुनौती अभी भी बनी हुई है।
थार मरुस्थल का निर्माण केवल प्राकृतिक घटनाओं का परिणाम नहीं है, बल्कि यह एक जटिल गाथा है – जहाँ भूगर्भीय बदलाव, जलवायु परिवर्तन, मानव व्यवहार और समय की चाल एक साथ मिलकर रचते हैं यह अद्भुत कहानी। यह मरुस्थल हमें न केवल अपनी सीमाओं की याद दिलाता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखना कितना आवश्यक है।थार, एक मरुस्थल होते हुए भी हमें जीवन, संघर्ष और सौंदर्य की अनोखी मिसाल पेश करता है – और यही इसे भारत का एक रहस्यमय और गौरवपूर्ण भूगोल बनाता है।
