राजस्व गांवों के नामकरण पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी, फुटेज में जानें व्यक्ति या जाति के नाम पर नहीं रखा जा सकता नाम
देशभर में राजस्व गांवों के नामकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि किसी भी राजस्व गांव का नाम किसी व्यक्ति, धर्म, जाति या उपजाति के नाम पर नहीं रखा जा सकता। यह आदेश जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस आलोक अराधे की पीठ ने भीकाराम व अन्य की अपील पर सुनवाई करते हुए दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राज्य सरकार द्वारा जारी नोटिफिकेशन और हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के आदेश को रद्द कर दिया है। अदालत ने कहा कि राज्य सरकार अपनी तय नीति से अलग जाकर कोई भी निर्णय नहीं ले सकती। यदि नीति में संशोधन किए बिना कोई कार्रवाई की जाती है, तो वह मनमानी मानी जाएगी, जो सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में राज्य सरकार के 20 अगस्त 2009 के सर्कुलर का विशेष रूप से उल्लेख किया। कोर्ट ने कहा कि यह सर्कुलर एक स्पष्ट नीतिगत निर्णय है, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि किसी भी राजस्व गांव का नाम किसी व्यक्ति, धर्म, जाति या उपजाति के नाम पर नहीं रखा जा सकता। साथ ही, यह भी निर्देश दिया गया है कि जहां तक संभव हो, गांव का नाम स्थानीय लोगों की आम सहमति से प्रस्तावित किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब सरकार स्वयं ऐसी नीति बना चुकी है, तो उसे उसका पालन करना अनिवार्य है। नीति के विपरीत जाकर लिया गया कोई भी फैसला कानून के दायरे में नहीं आता। अदालत ने यह भी कहा कि नीतिगत निर्णयों का उद्देश्य सामाजिक संतुलन और समानता बनाए रखना होता है, ताकि किसी भी वर्ग या समुदाय को विशेष लाभ या पहचान न मिले।
इस मामले में अदालत ने यह स्पष्ट किया कि गांवों के नामकरण में व्यक्ति या जाति विशेष के नाम जोड़ने से सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा हो सकती है, जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। इसलिए सरकारों को इस तरह के मामलों में बेहद सतर्क रहने की आवश्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को राज्य सरकारों के लिए एक स्पष्ट संदेश माना जा रहा है कि वे अपने ही बनाए नियमों और नीतियों का सख्ती से पालन करें। कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि यदि भविष्य में इस तरह की कोई कार्रवाई सामने आती है, तो उसे भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाया जा सकता है।
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह फैसला केवल एक गांव के नामकरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह प्रशासनिक निर्णयों में पारदर्शिता और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा को भी मजबूत करता है। इससे यह साफ हो गया है कि सरकारें मनमाने तरीके से निर्णय नहीं ले सकतीं और उन्हें संविधान तथा अपनी नीतियों के अनुरूप ही काम करना होगा।
