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सिर्फ ब्रह्मा मंदिर नहीं भगवान विष्णु के इस चमत्कारी मंदिर के लिए भी मशहूर है पुष्कर शहर, वीडियो में इतिहास जान चौंक जाएंगे आप

सिर्फ ब्रह्मा मंदिर नहीं भगवान विष्णु के इस चमत्कारी मंदिर के लिए भी मशहूर है पुष्कर शहर, वीडियो में इतिहास जान चौंक जाएंगे आप
 
सिर्फ ब्रह्मा मंदिर नहीं भगवान विष्णु के इस चमत्कारी मंदिर के लिए भी मशहूर है पुष्कर शहर, वीडियो में इतिहास जान चौंक जाएंगे आप

पुष्कर के प्राचीन मंदिरों में से एक भगवान विष्णु के तीसरे वराह अवतार का मंदिर है। यह मंदिर पुष्कर सरोवर के वराह घाट से 150 मीटर की दूरी पर स्थित है। चारों तरफ घनी आबादी से घिरे इस मंदिर के बारे में तीर्थयात्रियों को बहुत कम जानकारी है। लेकिन जिन तीर्थयात्रियों को 1100 साल पुराने प्राचीन वराह मंदिर के बारे में पता चलता है, वे इस किलेनुमा मंदिर के दर्शन करने जरूर आते हैं। एकादशी पर यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। मान्यता है कि मंदिर में सच्चे मन से की गई प्रार्थना जरूर स्वीकार होती है।

1100 साल पुराना है पुष्कर का वराह मंदिर
इसकी भव्यता का अंदाजा मंदिर के सीढ़ीनुमा हिस्से से लगाया जा सकता है। मंदिर तक पहुंचने के लिए 30 से 35 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। पीले पत्थर से बना भव्य द्वार और उस पर की गई नक्काशी बेहद खूबसूरत है। गेट को बाहर से देखने पर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि इस किलेनुमा प्राचीर और खूबसूरत द्वार के अंदर कोई मंदिर भी हो सकता है। गेट के अंदर से आने पर आपको बाईं ओर धनराज जी की विशाल प्रतिमा दिखाई देगी। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार धनराज जी हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। उसी के अनुसार मृतात्मा को अगली यात्रा पर भेजा जाता है।

धनराज जी के दर्शन के बाद आप भगवान गरुड़ के दर्शन कर सकते हैं, जो वराह अवतार में भगवान विष्णु की ओर देख रहे हैं। थोड़ा आगे चलने पर आप मंदिर के प्रांगण में आते हैं। सामने गर्भगृह में आप सफेद संगमरमर से बनी भगवान वराह की 3 फुट की प्रतिमा देख सकते हैं। भगवान वराह को भूपति भी कहा जाता है। जब शक्तिशाली राक्षस हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया था, तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी को समुद्र से बाहर निकाला और हिरण्याक्ष के आतंक से मुक्त कराया था। मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित आशीष पाराशर बताते हैं कि पौराणिक मान्यता के अनुसार जो भी व्यक्ति भूमि संबंधी समस्या के लिए भगवान वराह की भक्ति भाव से प्रार्थना करता है, उसकी समस्या का समाधान जल्द ही हो जाता है।

भगवान विष्णु के धरती पर आठ स्वयंभू क्षेत्रों में से एक: पंडित पाराशर बताते हैं कि वराह मंदिर में विराजमान मूर्ति स्वयंभू है। उन्होंने बताया कि यह वराह मंदिर भी धरती पर भगवान विष्णु के आठ स्वयंभू क्षेत्रों में से एक पवित्र स्थान है। भगवान विष्णु ने धरती पर 8 दिव्य तीर्थ स्थानों पर अवतार लिए थे, जिनमें श्रीरंगम तिरुमला, कल्ला हल्ली में भीम वराह स्वामी, तिरुनेलवेली में श्रीथोथाद्रिनाथन, नेपाल में मुक्तिनाथ, पुष्कर में वराह स्वामी, नैमिषारण्य में लक्ष्मी नारायण और बद्रीनाथ में बद्री नारायण शामिल हैं। उन्होंने बताया कि मंदिर के पौराणिक इतिहास और निर्माण के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन यह मंदिर 1100 साल से भी ज्यादा पुराना है।

किले जैसा है मंदिर: पंडित आशीष पाराशर बताते हैं कि मंदिर का निर्माण नौवीं शताब्दी में राजा रुद्रदेव ब्राह्मण ने कराया था। इसके बाद चौहान वंश के शासक अर्णोराज चौहान ने मंदिर को भव्यता प्रदान की। चौहान वंश के शासक गोविंद राज द्वितीय के पुत्र वाक्यपति राज प्रथम ने अपनी मां रुद्ररानी के कहने पर यहां भव्य शिव मंदिर का निर्माण भी कराया था। उन्होंने बताया कि मंदिर की सुरक्षा के लिए महाराणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह ने चारों तरफ प्राचीर रूपी सुरक्षा दीवार बनवाई थी। जिससे मंदिर किले जैसा दिखने लगा। प्रतिमा का मुख वराह जैसा है, जिसके दो दांतों के बीच गोल पृथ्वी है। धड़ मानव शरीर के रूप में है। इसकी चार भुजाएं हैं। इन भुजाओं में शंख, चक्र, पद्म और गदा है। उन्होंने बताया कि प्रतिमा में केवल दो हाथ ही दिखाई दे रहे हैं, जबकि पद्म और शंकर के हाथ कमर पर होने के कारण वस्त्र से ढके हुए हैं।

मंदिर पर कई बार हुए हमले: पंडित आशीष पाराशर बताते हैं कि वराह मंदिर पर कई बार विदेशी आक्रमणकारियों ने हमले किए। इन हमलों में मंदिर को 7 बार नुकसान पहुंचाया गया। मंदिर को ध्यान से देखें तो मंदिर का पिछला हिस्सा आज भी अपनी पौराणिक विरासत को दर्शाता है। जबकि सामने का हिस्सा बाद में बनाया गया था। समय-समय पर हिंदू शासकों ने भी मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। मुगल शासक औरंगजेब ने भी मंदिर को नष्ट करने की पूरी कोशिश की, लेकिन उस समय जोधपुर के राजा अजीत सिंह ने औरंगजेब की सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया। हालांकि, इस युद्ध में मंदिर को काफी नुकसान पहुंचा। आखिरी बार इस मंदिर का जीर्णोद्धार 17वीं शताब्दी में जयपुर के राजा सवाई जय सिंह ने करवाया था। तब से लेकर आज तक मंदिर का स्वरूप वैसा ही है।