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3 मिनट की इस वायरल डॉक्यूमेंट्री में देखे छप्पनिया अकाल का वो दौर जो कोई सपने में भी नहीं करना चाहेगा याद

3 मिनट की इस वायरल डॉक्यूमेंट्री में देखे छप्पनिया अकाल का वो दौर जो कोई सपने में भी नहीं करना चाहेगा याद
 
3 मिनट की इस वायरल डॉक्यूमेंट्री में देखे छप्पनिया अकाल का वो दौर जो कोई सपने में भी नहीं करना चाहेगा याद

'छप्पनिया अकाल' राजस्थान या थार के इतिहास का सबसे भयानक अकाल है जो वर्ष 1898 में पड़ा था। विक्रम संवत 1956 होने के कारण इसे 'छप्पनिया अकाल' भी कहते हैं। दुनिया इस अकाल को 'द ग्रेट इंडियन फेमिन 1899' के नाम से जानती है। ऐसा माना जाता है कि इस अकाल में राजस्थान के दस लाख लोग भूख से मर गए थे। आज भी लोकगीतों और लोकजीवन में इस अकाल की भयावहता का वर्णन मिलता है। 1908 में इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक अनुमान के अनुसार अकेले इस अकाल में ब्रिटिश इंडिया यानी ब्रिटिश सरकार के सीधे शासन वाले प्रदेशों में 10 लाख लोग भूख और उससे जुड़ी बीमारियों से मर गए थे। कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि यह आंकड़ा राजस्थान की कुल आबादी का करीब 25 फीसदी यानी 40 से 45 लाख तक पहुंच गया था। इसमें उस समय की रियासतों और रजवाड़ों में इस अकाल से हुई मौतों की संख्या शामिल नहीं है। तो चलिए आज के वीडियो में जानते हैं इतिहास के सबसे दर्दनाक काल छप्पनिया अकाल की कहानी।


राजस्थान में स्थित थार दुनिया का 17वां सबसे बड़ा रेगिस्तान और दुनिया का 9वां सबसे बड़ा गर्म रेगिस्तान है। यह राजस्थान का वह इलाका है जिसे प्रकृति ज्यादा पसंद नहीं करती। पूरे रेगिस्तान में बारिश लगभग नहीं होती, वहीं दूसरी तरफ यहां पानी के लिए एक भी नदी नहीं है। इस कारण यह पूरा इलाका अपनी पानी की जरूरतों के लिए पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। ऐतिहासिक रूप से राजस्थान में हर तीसरे साल अर्ध अकाल और हर आठवें साल भयंकर अकाल पड़ता रहा है, लेकिन छप्पनिया तो मानो बादलों को न बरसने की कसम दिलाकर आया था। छप्पनिया ने राजस्थान और यहां के लोगों दोनों की कमर इस हद तक तोड़ दी कि यहां के लोग मवेशियों का खाना खाने को मजबूर हो गए।

छप्पनिया अकाल की शुरुआत पश्चिमी और मध्य भारत में 1899 के ग्रीष्मकालीन मानसून की विफलता के साथ हुई थी। जिसने आने वाले साल में 476,000 वर्ग मील क्षेत्र की 6 करोड़ से ज्यादा आबादी के जीवन को असहनीय कष्ट में डाल दिया। शुरुआत में इस भयंकर अकाल का असर मध्य और उत्तर भारत में देखने को मिला, जिसमें बॉम्बे प्रेसीडेंसी, अजमेर-मेरवाड़ा का छोटा प्रांत और पंजाब का हिसार जिला शामिल था। हालांकि, इस अकाल से सबसे ज़्यादा राजस्थान की रियासतें प्रभावित हुईं। इस अकाल ने राजस्थान के नागौर, मारवाड़, मेवाड़, काठियावाड़, जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर और जैसलमेर जैसे इलाकों में सबसे ज़्यादा तबाही मचाई। सूखे की वजह से राजस्थान में खाने-पीने की चीज़ों की भारी कमी हो गई, जिसकी वजह से रियासतों का अंतर-क्षेत्रीय व्यापार बर्बाद हो गया। नतीजतन, भूख से होने वाली मौतों की दर में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ।

वर्ष 1899 में उत्तर भारत के कई हिस्सों में औसत वर्षा 45 इंच से घटकर मात्र 11 इंच रह गई थी। इस दौरान राजस्थान के अधिकांश हिस्सों में पूरे साल में बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी। वर्षा ऋतु की खेती पर निर्भर राजस्थान में बारिश की कमी के कारण किसान अपनी फसलों की बुवाई भी नहीं कर पाए। जिसके कारण न तो अनाज का एक दाना पैदा हुआ और न ही पशुओं के लिए चारा उपलब्ध हो पाया। जो इलाके पीने के पानी के लिए वर्षा जल भंडारण पर निर्भर थे, वहां पीने के पानी की भारी कमी के कारण लोग पलायन करने लगे। भुखमरी का दौर इस स्तर पर पहुंच गया कि लोग अपने घरों से अनाज और पानी चुराने लगे। इसकी तबाही का दर्द आप इसी बात से समझ सकते हैं कि उस दौर में लोग अनाज के बदले अपनी बीवी-बच्चों तक को बेचने को मजबूर हो गए थे अकाल के दौरान एक तरफ लोग पीने के पानी की कमी के कारण निर्जलीकरण के कारण मर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रेगिस्तान से पलायन कर रहे लोग और जानवर 50-52 डिग्री सेल्सियस तापमान में भूख और प्यास के कारण मर रहे थे। अकाल की तबाही के कारण धीरे-धीरे मर रहे लोग घास की बनी रोटियां, सांप और नेवले का शिकार और पेड़ों की सूखी छाल को पीसकर खाने को मजबूर थे। भुखमरी का आलम यह था कि कुछ लोग भूख के कारण नरभक्षी भी बन गए थे।

छप्पनिया अकाल का कहर इतना भयानक था कि भूख और पानी की कमी के कारण लोगों के शरीर की हर हड्डी साफ दिखाई दे रही थी। लोग इतने कमजोर हो गए थे कि उन्हें चलने, खड़े होने के लिए भी सहारे की जरूरत थी, इसके लिए लगभग हर घर में खूंटे गाड़े गए थे। राजस्थान में खूंटे गाड़ने का मतलब है जमीन में एक लंबी लकड़ी गाड़ना, जिसके सहारे लोग खड़े हो सकें, चल सकें और अपने रोजमर्रा के काम कर सकें। जब अनाज की कमी हुई तो लोगों को एक दिन छोड़कर खाना खाने पर मजबूर होना पड़ा, लेकिन यह तबाही यहीं नहीं रुकी। हालात इस हद तक बिगड़ गए कि लोग भूखे पेट काकड़िया-मतीरा के बीज खाने को मजबूर हो गए, जब वे भी खत्म हो गए तो पेड़ों की छाल खाने लगे, जब सूखे की वजह से वे भी खत्म हो गए तो लोग बेर, वनस्पति और झाड़ियां खाने लगे।

एक वक्त ऐसा भी आया जब लोगों के आसपास के इलाके में मीलों तक ये सब भी खत्म हो गए। इसके बाद लोग बेर की बची हुई गुठलियों का चूर्ण बनाकर पानी के साथ खाने को मजबूर हो गए। जब ​​लोगों के लिए हर रास्ता बंद हो गया तो उन्होंने सूखी घास उबालकर खाना शुरू कर दिया। अकाल का अंधेरा लोगों पर इतना गहरा था कि खाने-पीने की कमी की वजह से लोगों का खून धीरे-धीरे सूख गया।