इन दो पार्टियो का खेल बिगाड़ रही 'BAP' को आदिवासी परिवार से मिल रहा बूस्टर डोज, वीडियो में देखें ये बड़ी खबर
जयपुर न्यूज़ डेस्क, "जिसने जीता मेवाड़, उसकी बनी सरकार", राजस्थान की सियासत में यह बात काफी मशहूर रही है. इसके पीछे वजह है अब तक के विधानसभा चुनाव के परिणामों का ट्रेंड. साल 2018 को छोड़ दिया जाए, तो हर बार मेवाड़-वागड़ की 28 सीटों पर जीत हासिल करने वाली ही पार्टी राजस्थान में सरकार बनाने में कामयाब रही है. इस क्षेत्र में उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और डुंगरपुर के जिले शामिल हैं. राजस्थान में 7 सीटों पर उपचुनाव का ऐलान के बाद इलाके में सियासत फिर से गरमा गई है.
डूंगरपुर जिले की चौरासी के अलावा सलूंबर विधानसभा सीट पर भी बीजेपी और कांग्रेस, दोनों के लिए कड़ी चुनौती नजर आ रही है. यह चुनौती सालभर पहले अस्तित्व में आई भारत आदिवासी पार्टी (BAP) से मिल रही है. बांसवाड़ा-डूंगरपुर लोकसभा सीट पर कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बाद अब इस सीट पर दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन के आसार नजर नहीं आ रहे हैं. यही नहीं, पार्टी ने सलूंबर उपचुनाव में भी तोल ठोंकने का इशारा कर दिया है. दूसरी ओर, उदयपुर समेत मेवाड़ में वर्चस्व रखने वाली बीजेपी के लिए नजदीकी क्षेत्र वागड़ में ही काफी मुश्किलें पैदा हो गई हैं. बांसवाड़ा-डूंगरपुर लोकसभा सीट बीएपी के खाते में होने से सत्ताधारी दल के लिए उपचुनाव आसान नहीं रहने वाला है.
पिछले साल 10 सितंबर को रजिस्टर्ड हुई थी बीएपी
बीते साल 10 सितंबर को रजिस्टर्ड हुई पहले विधानसभा चुनाव में राजस्थान से 3 विधायक के अलावा मध्य प्रदेश में भी रतलाम जिले की सैलाना सीट से एक विधायक चुना गया. इसके 6 महीने के भीतर ही 1 लोकसभा सीट जीतकर पार्टी ने अपनी धमक बता दी. हालांकि 10 सितंबर को रजिस्टर्ड होने से पहले इस पार्टी के कई संस्थापक सदस्य भारतीय ट्राइबल पार्टी यानी बीटीपी का भी हिस्सा थे. बीटीपी ने साल 2018 में भी 2 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. चाहे बीटीपी हो या बीएपी, दोनों के पीछे जीत का आधार एक ही रहा है. वह है दक्षिण राजस्थान के इस हिस्से में काम कर रहा संगठन 'आदिवासी परिवार'.
करीब एक दशक पहले आदिवासी परिवार के बैनर तले इस क्षेत्र में आदिवासियों को लामंबंद करने की कोशिश हुई और इस संगठन ने सियासी मैदान में उतरने के लिए गुजरात के आदिवासी नेता छोटूभाई बसावा की पार्टी बीटीपी को समर्थन दिया. जब बीटीपी में दरार पड़ गई तो आदिवासी परिवार ने नए दल बीएपी का गठन किया और वह राजस्थान में तीसरे बड़े दल के तौर पर उभर चुका हैं. बड़ा सवाल यही है कि आखिर क्या है आदिवासी परिवार, जिसके इर्द-गिर्द इस क्षेत्र की सियासी तस्वीर गढ़ने की कोशिश हो रही है?
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भील प्रदेश समेत कई मांग के लिए आंदोलन कर चुका है आदिवासी परिवार
दरअसल, आदिवासी परिवार जनजाति के कई मुद्दों पर आंदोलन कर चुका है. आदिवासी परिवार के संस्थापक कांति रोत और सरकारी स्कूल में शिक्षक भंवरलाल परमार रहे. रोत बताते हैं कि आदिवासी क्षेत्र या टीएसपी एरिया में आर्टिकल 244 (1) के तहत आदिवासियों को विशेष दर्जा प्राप्त है और यह आदिवासियों के अलावा किसी अन्य को नहीं मिल सकते. इन तमाम अधिकारों के संबंध में जागरूकता के लिए आदिवासी परिवार का गठन किया गया. इससे पहले साल 2011 में आदिवासी अनूसूचित क्षेत्र संघर्ष मोर्चा की स्थापना भी की गई थी.
आदिवासी परिवार ने इस इलाके में अवैध खनन को रोकने के लिए भी संघर्ष किया. शिक्षक पात्रता परीक्षा हो या बीएड में सीटें बढ़ाने का मामला, जनजाति समाज के युवाओं के लिए संगठन ने कई मुद्दों पर आंदोलन किया. रोत के मुताबिक अभी भी कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनके लिए राजनीतिक दल की जरूरत महसूस हुई और उन्हीं मांगों को आधार बनाते हुए सियासत में उतरने का फैसला लिया गया. इसके अलावा राजस्थान समेत 4 राज्यों के कुल 42 जिलों को मिलाकर भील प्रदेश की मांग भी आदिवासी परिवार करता आया है. संगठन के पदाधिकारियों का मानना है कि राजस्थान, एमपी, गुजरात और महाराष्ट्र के अनुसूचित क्षेत्रों को मिलाकर अलग प्रदेश की स्थापना की जानी चाहिए.
साल 2016 में पहली बार लड़ा छात्रसंघ चुनाव और लहराया परचम
संस्थापक सदस्य के मुताबिक आदिवासी परिवार का 2 उद्देश्य हैं- 'सांस्कृतिक शुद्धिकरण और वैचारिकता एकीकरण'. उनका कहना है कि आदिवासियों में गैर-आदिवासियों का प्रचार हो चुका है, ऐसे में जनजाति संस्कृति के संरक्षण के साथ समाज में वैचारिक तौर पर एकता लाने के लिए परिवार काम कर रहा है. संगठन ने छात्र मोर्चा, महिला मोर्चा और युवा मोर्चा का विस्तार भी तेजी से करना शुरू कर दिया है.
साल 2016 में पहली बार छात्रसंघ चुनाव में हिस्सा लिया. डूंगरपुर स्थित भोगीलाल पंड्या महाविद्यालय में भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा (बीपीवीएम) का पूरा पैनल जीता, इसे भी आदिवासी परिवार का समर्थन हासिल था. इसके बाद उदयपुर संभाग के कई कॉलेज में चुनाव लड़े. इसी का नतीजा रहा कि साल 2018 के विधानसभा चुनाव आदिवासी परिवार के समर्थन से बीटीपी के 2 विधायक और फिर साल 2023 में बीएपी की जीत हुई. खास बात यह भी है कि जब जुलाई-2020 के दौरान तत्कालीन गहलोत सरकार को जब पायलट गुट की बगावत का सामना करना पड़ा तो बीटीपी के दोनों विधायकों का पूर्व सीएम अशोक गहलोत को समर्थन मिलने से राहत मिली थी. हालांकि कुछ समय बाद गहलोत सरकार पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते हुए पार्टी ने समर्थन वापस भी ले लिया था. उनका कहना था कि सरकार से जो मांग की थी, वह पूरी नहीं हुई.
जब बीजेपी और कांग्रेस को करना पड़ा था गठबंधन
यह भी दिलचस्प है कि जिस साल गहलोत सरकार को सियासी संकट से उबारने में बीटीपी ने मदद की थी, उसी साल कांग्रेस ने बीटीपी समर्थित प्रत्याशी को हराने के लिए बीजेपी से हाथ मिला लिया था. प्रदेश की सियासत में ऐसा पहली बार था, जब कांग्रेस और बीजेपी ने एक साथ हाथ मिला लिए हो. इन सबके पीछे वजह थी दक्षिण राजस्थान में आदिवासी परिवार और बीटीपी जैसे संगठनों की बढ़ती ताकत, जिसे रोकने के लिए दोनों मुख्य दल एक हो गए थे.
दरअसल, डूंगरपुर जिला परिषद के चुनाव में बीजेपी कांग्रेस के 6 और बीजेपी के 8 प्रत्याशी जीते थे. इसी चुनाव में 13 निर्दलीय सदस्य भी जीतकर आए, जिन्हें आदिवासी परिवार या यूं कहे बीटीपी का भी समर्थन प्राप्त था. बीटीपी ने पार्वती देवी डोडा को जिला प्रमुख प्रत्याशी के तौर पर समर्थन दे दिया, जबकि बीजेपी ने सूर्या आहारी को मैदान में उतारा. इसी दौरान बीटीपी समर्थित प्रत्याशी को हराने के लिए बीजेपी और कांग्रेस एक साथ आ गए थे, जिसके चलते पार्वतीदेवी डोडा को एक वोट से शिकस्त देते हुए बीजेपी की सूर्या अहारी जिला प्रमुख चुनी गईं.