Banswara जोधपुर में मां ज्वाला का एक पैर जमीन में, जिले में दिन में तीन बार रूप बदलने वाली देवी
बांसवाड़ा न्यूज़ डेस्क, राजस्थान के दो अनूठे मंदिर, पहला जहां प्रतिमा का एक पैर जमीन के अंदर है और एक मंदिर, जहां मां दिन में तीन बार अलग-अलग स्वरूप में दर्शन देती हैं। ये दोनों मंदिर है जोधपुर और बांसवाड़ा में। जाेधपुर शहर की स्थापना के पहले से मां ज्वालामुखी का मंदिर है। मान्यता है कि इस मंदिर में माता की प्रतिमा पहाड़ चीर कर प्रकट हुई थी। भक्त की आवाज सुनकर प्रतिमा का आधा पांव पहाड़ में ही रह गया। इस मंदिर में आज भी भीम के नाखूनों के निशान देखे जा सकते हैं। शहर के घुमावदार रास्तों से होकर गुजरने वाली इस पचेटिया पहाड़ी पर स्थित माता ज्वाला जी मंदिर को पांडव काल का माना जाता है। यह मंदिर 700 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। इसके ठीक पीछे मेहरानगढ़ का चामुंडा माता मंदिर है। ज्वालामुखी मंदिर के पुजारी परिवार के चिन्मय शर्मा ने बताया कि महाभारत काल के समय इस पहाड़ी क्षेत्र में ज्वाला प्रसाद नाम के एक भक्त रहते थे। वो माता की उपासना किया करते थे। उन्होंने माता से दर्शन देने के प्रार्थना की। मां ने अपने भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए उनका दर्शन देने से पूर्व एक शर्त रखी। पता नहीं कहां मैं तुम्हें दर्शन दूंगी, लेकिन तुम्हें किसी भी आवाज से डरना नहीं है। भक्त ने मां की शर्त स्वीकार कर ली।
इसके बाद मां दर्शन देने को तैयार हो गई। माता अपने स्वरूप में पहाड़ फाड़ कर प्रकट हो रही थी उस समय तेज आवाज हुई। ज्वाला प्रसाद बैठकर तपस्या कर रहे थे। माता की सवारी सिंह भी प्रकट हुआ। इससे ज्वाला प्रसाद डर गए और मां से मदद की पुकार लगाई। मां की बताइए शर्त का उल्लंघन करने की वजह से माता का स्वरूप पूर्ण रूप में प्रकट नहीं हो सका। इसी के चलते निज मंदिर में माता की प्रतिमा का पैर पहाड़ी से बाहर नहीं आ सका। दावा है कि आज भी इस मंदिर में स्थापित इस प्रतिमा का एक पैर जमीन के अंदर है। हालांकि, इसकी फोटो आज तक सामने नहीं आई क्योंकि यहां फोटो लेना मना है। महाभारत काल के समय अज्ञातवास में पांडव वन वन विचरण कर रहे थे। दावा किया जाता है कि उस समय महाबली भीम यहां पर छिपने के लिए इसी पहाड़ी पर आए थे। यहां इसलिए रुके क्योंकि इस पहाड़ी पर खड़े होकर वो दूर-दूर तक देख सकते थे। जिससे किसी के आने पर वे एक-दूसरे की सुरक्षा कर सके। उस दौरान इस पहाड़ी पर कई ऋषि-मुनि भी तपस्या करते थे।
प्यास बुझाने के लिए संत नदी में पानी लेने के लिए जाते थे। एक दिन संत पानी लेने के लिए गए तो वो दो दिन बाद वापस लौटे। जब भीम ने कारण पूछा तो संतो ने बताया कि यहां पर जंगल होने की वजह से कहीं जंगली जीव भी रहते हैं ऐसे में उन्हें बचकर यहां तक पहुंचना होता है। ऋषि मुनियों की यह बात सुनकर भी ने उनके लिए पानी की व्यवस्था करने के लिए यह कुंड बनाया। बांसवाड़ा के त्रिपुरा सुंदरी मंदिर की अखंड ज्योत करीब 500 साल से जल रही है। वर्तमान में सेवक शाकद्विपीय ब्राह्मण यहां पर सेवा पूजा करते है। देश की आजादी से पहले इस मंदिर में राजपरिवार की और से पूजन सामग्री भिजवाई जाती थी। वर्तमान पुजारी दीपक शर्मा ने बताया की उनके परिवार की 7 वी पीढ़ी यहां पर पूजा कर रही हैं। ये मंदिर देवस्थान विभाग के अधीन है। नवरात्रि के समय में यहां पर काफी चहल पहल रहती है। मंदिर सुबह 6 बजे से 12 बजे, शाम 4 से 8 बजे तक खुला रहता है।
बांसवाड़ा का त्रिपुरा सुंदरी मंदिर जो 52 शक्ति पीठ में से एक है। यहां प्रतिमा को लेकर दावा किया जाता है कि सुबह, दोपहर और शाम को प्रतिमा के अलग-अलग रूप में दर्शन होते हैं, इसलिए त्रिपुरा सुंदरी कहा जाता है। पंडित निकुंज मोहन पण्ड्या ने बताया कि सुबह में मां कुमारिका, दोपहर में यौवना और शाम में प्रौढ़ रूप में दर्शन होते हैं। ये भी कहा जाता है कि मंदिर के आस-पास पहले कभी तीन किले हुआ करते थे, शक्ति पुरी, शिव पुरी और विष्णु पुरी और इन्हीं तीन पुरियों के कारण भी नाम त्रिपुरा सुंदरी पड़ा।
बांसवाड़ा जिले से करीब 18 किलोमीटर दूर तलवाड़ा गांव में अरावली पर्वतामाला के बीच माता त्रिपुरा सुंदरी का भव्य मंदिर है। मां भगवती त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति अष्टदश यानी अठारह भुजाओं वाली है। मूर्ति में माता दुर्गा के नौ रूपों की प्रतिकृतियां अंकित हैं। मां सिंह, मयूर और कमल आसन पर विराजमान हैं। ऐसा भी दावा किया जाता है कि एकमात्र इकलौता सिद्ध शक्ति पीठ है, जिसमें मां की सिंह सवारी उत्तर मुखी यानी उल्टे हाथ की तरफ है बाकि मंदिरों में ये दक्षिण मुखी यानी सीधे हाथ की तरफ होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वामांग सिंह पर मां त्रिपुरा विराजित हाेने पर उन्हें महालक्ष्मी के रूप में और सिंह काे कुबेर रूप में साक्षात विद्यमान माना जाता है। इसलिए मां त्रिपुरा सुंदरी के कमल के आसन के नीचे श्री यंत्र है।
आयुध श्रीयंत्र के आसन पर विराजित होने की वजह से मां लक्ष्मी के स्वरूप में भी आराधना होती है। हर भुजा में अक्षमाला, कमल, बाण, खड़ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शंख, घंटा, पाश, शक्ति, दंड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमंडल जैसे आयुध (हथियार) भी हैं। देश में यह मंदिर अनूठा है, जहां प्रत्येक शिला (पत्थर) को हवन-पूजन कर प्रतिष्ठित किया है। मंदिर में 2224 शिलाएं हैं। मंदिर में त्रिपुरा सुंदरी की मूल प्रतिमा के चारों ओर कुल 8 प्रतिमाएं, 5 स्वर्ण शिखर, 1 ध्वजदंड और शुकनाथ की प्रतिष्ठित प्रतिमा है। देवी के आसन के नीचे चमकीले पत्थर पर श्री यंत्र बना है, जिसका अपना विशेष तांत्रिक महत्व भी है। इस कारण दीपावली पर देवी की विशेष पूजा होती है। महामंत्री नटवरलाल पंचाल ने बताया कि 15 अक्टूबर रविवार को नवरात्रि के अवसर पर दोपहर 12.1 से 12.45 के बीच घट स्थापना होगी। आरती 7 दिन सुबह 7 बजे होगी और अष्टमी को सुबह 5 बजे होगी। हर दिन 20 हजार श्रद्धालु और अष्टमी को 1 लाख से अधिक श्रद्धालुओं के आने की संभावना है। पंडित गणेश शर्मा ने बताया कि मां का हर 8 दिन अलग अलग शृंगार होगा। इसमें रविवार को पंचरंगी, सोमवार को सफ़ेद, मंगलवार को लाल, बुधवार को हरा, गुरुवार को पीला, शुक्रवार को केसरिया, शनिवार को नीला शृंगार होगा।